पत्रकारिता: लोकतंत्र का चौथा स्तंभ आजकल विफल क्यों है?

     पत्रकारिता सिर्फ़ समाचार देने का माध्यम नहीं है । बल्कि विचारों और सत्य की आवाज़ है। यह समाज का आईना है, जो शासन की नीतियों, जनता की समस्याओं और सच्चाई के बीच पुल का काम करती है। कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बाद इसी का स्थान आता है। इसी कारण पत्रकारिता को “लोकतंत्र का चौथा स्तंभ” कहा गया है। पत्रकारिता का इतिहास भारत में पत्रकारिता की शुरुआत 1780 में ‘हिक्कीज़ बंगाल गजट’ से हुई। यह वह दौर था जब ब्रिटिश शासन के अत्याचारों को उजागर करने वाला हर लेख एक क्रांति बन जाता था। धीरे-धीरे हिंदी, उर्दू और अन्य भाषाओं में भी अख़बारों की शुरुआत हुई — जिन्होंने जनता को जागरूक किया और स्वतंत्रता संग्राम की नींव मजबूत की। इसी कारण अंग्रेजी सरकार इसे दबाने के लिए कठोर नियम बनाये लेकिन पत्रकारिता जिंदा रही आज के दौर में इसके कई रुप हो गयें है। भारत की आज़ादी में पत्रकारिता और प्रेस का योगदान भारतीय प्रेस ने स्वतंत्रता आंदोलन में सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक क्रांति की लहर पैदा की है। बाल गंगाधर तिलक ने ‘केसरी’ और ‘मराठा’ से “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है” का नारा दि...

राजनीति का बदलता परिदृश्य ( भाग - 1)


राजनीति शब्द सूनते ही आम लोगों के जेहन में कई नेताओं की छवि आती हैं। तो वही पढ़े लिखे लोग इसे राज और नीति दो शब्दों से जोड़ कर देखते हैं अर्थात् वैसी नीति जिसके माध्यम से राज्य के शासन को संचालित किया जाता हैं । 
       अब हमें आज की राजनीति पर चर्चा को आगे बढ़ाते समय  अपने देश के पूराने दौर के राजनीति  से तार्किक रूप से तुलना करते हुये आगे बढ़ेगें । हम शुरुआत अपने राष्ट्र पिता महात्मा गांधी जी के भारत वापसी से शुरू करेंगे। 
       वर्ष 1915 में हमारे देश की आम जनता अंग्रेज़ी हुकूमत में कैद थी। उसी दौर में गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से वापस लौट कर भारत आये थें। यहाँ उन्होंने देश के विभिन्न भागों का दौरा किये और लोगों की समस्याओं को जाना। फिर लखनऊ में कांग्रेस के अधिवेशन में उनकी मुलाकात राजकुमार शुक्ल जी से हुई जिन्होंने गांधी जी को चम्पारण के किसानों के दयनीय स्थिति से अवगत कराये तथा बापू को चम्पारण आने का आग्रह किया और गांधी जी ने इसे स्वीकार किया  । 
       यहाँ हमें ये समझना होगा कि गांधी जी को कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं था ना वो विधायक, ना सांसद, ना मंत्री , ना मुख्यमंत्री, ना प्रधानमंत्री बनने जा रहे थें। उन्हें फिक्र केवल यहाँ के लोगों की थी । 
वही आज का नेता यदि विधायक या सांसद ना बने तो वो सीधा वोट के वक्त याद करेगा। जो जीत गया वो नजर नहीं आता राजधानी में व्यस्त रहता हैं जनता को क्या समस्या हैं ? इसकी फिक्र तो उसे चुनाव के वक्त या पार्टी के हित मे कोई आंदोलन या अनशन करना हो तो होती हैं। खैर ये दुर्भाग्य हैं जनता का कि ऐसे राजनेताओं को चुनते हैं। 
 हम बात गांधी जी के चंपारण आगमन कि कर रहे थे उसे आगें बढ़ाते हुए हम चलते हैं चंपारण । 
  चंपारण जो चंपा को लेकर प्रसिद्ध था। गांधी जी के आगमन के बाद यह धरती बापू की कर्म भूमि के नाम से प्रसिद्ध हो गया। यही वह धरती हैं जहाँ से सत्याग्रह की पहली पटकथा का शुभारंभ हुआ। इसे बाद में गांधी जी ने पूरे देश में व्यापक रूप से प्रयोग किया। 
       यहाँ किसानों की समस्याओं कि समीक्षा के लिए एक कमीटी गठित की गयी जिसके सदस्य गांधी जी भी थे। उन्होंने किसानों की समस्याओं को निष्पक्ष होकर सुना तथा तुरंत तीनकठिया पद्धति को समाप्त करने का रिपोर्ट सौपा। अंततः तीनकठिया पद्धति को समाप्त करना पड़ा। 
       आज के दौर में किसानों की समस्या को लेकर कोई भी कमीटी बनती हैं तो वह ना तो धरातल पर जाकर किसानों की समस्या से अवगत होती हैं ना किसानों की समस्या को पत्राचार या डिजिटल माध्यम से सूनकर उसकी समिक्षा करती हैं। कमीटी के सदस्य एकतरफा होते हैं वो गांधी जी की तरह निष्पक्ष नहीं हो पाते क्योंकि वो सत्यवादी नहीं होतें। वैसे तो ये विदेशी लेखकों का बुक हो या नैतिकता का पोथी सब पढ़ डालते हैं लेकिन सत्यवादी नहीं हो पाते उन्हें लालच घेरे रहती हैं व्यकितगत लाभ की । 
     
   
          

             

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